नदी एक गीत है :
जो पहाड़ के कण्ठ से निकल
समुद्र की जलपोथी में छप जाती है
जिस के मोहक अनुरणन से हरा-भरा रहता है
घाटी-मैदान
अपने घुटने मोड़ जिसे पीती है बकरी
हबो-हबो कहने पर पी लेते हैं जिसे गाय-गेरू
खेत-खलिहान की मेहनत की प्यास में
पीते हैं जिसे मजूर-किसान
नदियों में पानी है तो सदानीरा है जुबान
रेत में हाँफती नदियाँ
भाषा के हलक में खरखराती हैं
कीचड़-कालिख में तड़पती नदियों से
बोली-बानी का फेफड़ा हो रहा है संक्रमित
आँख का पानी भी उतार पर है
और उस पानी की कमी से
आदमी का करेजा हो रहा है काठ !
नदियों की बीमारी से
गाँव-जवार, नगर का चेहरा उतरा हुआ लग रहा है
जैसे कि यमुना की बीमारी से
दिल्ली का चेहरा है बेनूर
बेतवा को मण्डीदीप दबोच रहा है
क्षिप्रा की दशा देख बिलख रहा है मेघदूत
महानद की उपाधि बचाने में सोन की
फूल रही है साँस
गंगा के प्रदूषण पर रोना रोने के सिवा
क्या कर रही है सरकार !
नदी एक गीत है :
जिस के घाट पर ही हमने किया ग़मे-रोजगार
लोककण्ठ गाते हैं कि नदियों से ही जीवित हैं
हमारे सजल-संबंध
पार्वती गाँव की मेरी माँ
हर नदी की अपने मायके की सम्पदा कहती है
नदी एक गीत है :
ख़ानाबदोश कंकर भी
जिस से अपनी धुन में बहता है !