Last modified on 7 जून 2021, at 19:47

नदी खारी हुई / संजीव 'शशि'

मिल समंदर से नदी खारी हुई।
जीत कर भी लग रही हारी हुई॥

काँपते थे शैल भी हुँकार से।
लड़ रहा था सत्य की तलवार से।
आज वह तलवार दोधारी हुई।

चाह ने उजियार की ऐसा छला।
दीप कैसा जो तिमिर से जा मिला।
रात काली दीप पर भारी हुई।

दूसरों के काम आऊँ थी लगन।
झूमता था प्रेम में होकर मगन।
आज भौतिकता उसे प्यारी हुई।