नदी
देर तक इठलाती रहती
आलिंगनबद्ध,
बातें करती
न जाने कितनी देर ।
छोटी सी नाव में
हिचकोले लेती, निहारती
लहरों और चन्द्रमा की
लुका-छिपी ।
नदी तब छेड़ देती
वही पुराना गीत
जो बरसों से गाती हैं
'गँवार' औरतें ।
और गीत का नयापन भर देता
मन के कूल-किनारों को
बाँसुरी की तान से ।
तिरोहित हो जाता दाह
तन का, मन का ।
बरसों बाद लौटा हूँ ।
साँझ ढले
खोजता निकल आया हूँ दूर,
न जाने कहाँ ग़ुम है
वह छोटी नाव ।
सड़क और पुलों की भीड़ से डरी
नदी,
कहीं चली गई ।
किसी ने कहा —
कभी-कभी दिख जाती है
उसकी गन्दलाई प्रतिछाया
बरसातों में ।
लौट आता हूँ
एक लम्बी निःश्वास ले,
उलझ जाता हूँ फिर
अपने लैपटाप से ।
नदी अब शेष है
केवल
मेरी स्मृतियों के अजायबघर में ।