नदी बोलती है
रुई के फाहों से
प्रवासी पक्षी
उतरते हैं
शिवालिक पर
ऊँचे शिखरों पर
उदास हैं वनस्पतियाँ
घिर आया है
ठंडे कोहरे का समुद्र
उड रहा है एकाकी पक्षी
अलकनंदा के किनारे से
मैंने उठाई है मुटठी भर रेत
और बिखर गयी हूँ
शायद,
मैं ही क्रौंच हूँ
मैं ही व्याध
और मैं ही
आदिकवि।