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नदी हूँ मैं... / स्वाति मेलकानी

बरसाती नाले की तरह
तीव्र है तुम्हारा प्यार
चलो नाला नहीं
झरना कह देती हूँ
अचानक फूट पड़ता है
और मैं
ढलान की
कमजोर घास को पकड़ कर
किसी तरह
खुद को बचा पाती हूँ...
चेतना की
जाने कितनी परतों के नीचे
झाँकने पर
मैं जानती हूँ
मैंने भी चाहा है तुम्हें
निरन्तर
प्रवाह कम नहीं मुझमें भी
पर
तुम मुझे बाढ़ बनाना चाहते हो
और मैं
नदी हूँ...