कगारों से इन कटावों-उभारों में
बँधा बहता तनतनाता जल
बीच धारा भँवर भी हैं, वेग भी
कहीं गहरे कसमसाती है उफन
नदी हो तुम !
तुम नदी हो
मुझे जिस को तैरना
उस पार जाना है
वहीं तो है तीर्थ !
नहीं, पुल से नहीं
पुल नदी की उपेक्षा है
और डरना भी !
तीर्थ तक वही पहुँचा है
जो नदी को भुजाओं में भींच लेता है।
(1977)