पुआल के घेरदार घाघरे
झूल गये पेड़ों पर,
घास के गट्ठे लादे आती हैं
वन-कन्याएँ
पैर साधे मेड़ों पर।
चला चल डगर पर।
नन्दा को निहारते।
तुड़ चुके सेब, धान
गया खलिहानों में,
सुन पड़ती है
आस की गमक एक
गड़रिये की तानों में।
चला चल डगर पर
नन्दा को निहारते।
लौटती हुई बकरियाँ
मढ़ जाती हैं
कतकी धूप के ढलते सोने में।
एक सुख है सब बाँटने में
एक सुख सब जुगोने में,
जहाँ दोनों एक हो जाएँ
एक सुख है वहाँ होने में
चला चल डगर पर
नन्दा को निहारते।
बिनसर, सितम्बर, 1972