क्यूँ नमक की डली मैं अधर पर रखूँ
इक नदी सा वृहद प्यार मैंने जिया
इक लहर सा मगर प्यार तुमने दिया
है शिकायत ये लेकिन मैं संतुष्ट हूँ
प्यार का निर्वहन साथ हमने किया
मन ये कहता है थोड़ा सा धीरज धरूँ
क्यूँ नमक की।
एक पल भी मुझे तुम न विस्मृत करो
प्रेम से मेरे ख़ुद को अलंकृत करो
सुप्त वीणा को मधुरिम मिलन राग से
मैं भी झंकृत करूँ तुम भी झंकृत करो
अपनी मनकामनाएं ये तुमसे कहूँ
क्यूँ नमक की ।