क्या हो
इन पुकारते पुष्पमुखों
और
कर्मठ हाथों का !
जब सूर्य होने का पर्याय
महत्वहीन दृष्टि संस्पर्शों को भोगता
अंधेरे में चमकता जल मात्र है !
जहाँ
मत्स्य-क्रीड़ा का कोई क्षण
मौन को किंचित खण्डित कर
अस्त्तिवहीन हो जाता है !
काश !
यह पूरा का पूरा आकाश
टूट कर गिर पड़ता !
यह मौन शाश्वत अंत पा जाता !
x x x x
दिग्स्तम्भॊ के टूटने का स्वर सुनाई पड़ रहा है !
सम्भावनाएं स्वागत को प्रस्तुत हैं !
विश्वास ! ओ बन्धु !
अब मुझे छोड़ कर न जाओ !
नए प्रभात के हाथों में
सद्यः प्रस्फुटित ज्योति-पुष्प है !
जल की सतह पर उसका होना
समूची सृष्टि को नया अर्थ दे रहा है !
ओ, बन्धु विश्वास !
अब मुझे छोड़ कर न जाओ !
(1965)