बाँज का घना जंगल
दोपहर सूनी।
कब से झरे सूखे हुए पत्तों पर
पक कर नये झरते
पात की खड़कनः
जंगल की खामोशी को
नया करती हुई।
(1983)
बाँज का घना जंगल
दोपहर सूनी।
कब से झरे सूखे हुए पत्तों पर
पक कर नये झरते
पात की खड़कनः
जंगल की खामोशी को
नया करती हुई।
(1983)