अब उस तरह नहीं होती सुबह
कि सूरज उगे इधर
उधर दुनिया प्रकाश से भर जायँ
अब उस तरह नहीं आता कैशोर्य
कि दूध के दाँत
चूहे के बिल में जाएँ
और अंग-प्रत्यंग कौतूहल से भर आयँ
नहीं, उस तरह अब नहीं आता प्रेम
कि कोई दूसरा हो,
बस हो,
जिसे देख आप
क्या से क्या हो जायँ
अब कहाँ सम्भव
बिना आवाज़ का संगीत
बिना भाषा की कविता
बिना हवा का तूफान
बिना बीज के फल
बिना युद्ध का समय
नहीं,
उस तरह सम्भव नहीं हो पाता
अब संसार
कि मात्र अपनी आस्था के बूते
पाई जा सके मुक्ति
पाया जा सके न्याय
पा सके मनुष्य स्वयं को
नहीं,
अब उस तरह सम्भव नहीं।