आँधियाँ फिर से क्षितिज पर
मुक्त मँडराने लगीं!
जन-सिन्धु में हलचल नयी,
अँगड़ाइयाँ भर सुप्त लहरें
व्याघ्र-स्वर करती जगीं!
दूर का प्रेरक बड़ा उद्गम
रुकावट चीर कर,
चट्टान का उर भेद कर,
शायद, गरजता बढ़ प्रवाह गया!
कर लिया संचित सुदृढ़ बल फिर
अथक दुर्दम नया !
है तभी तो युग तुम्हारे
प्राण में उत्साह, जीवन, स्नेह, धड़कन!
मरकुरी-सी ज्योति
आगत युग-नयन की,
दूर है धुँधली सभी छाया सपन की!
ढीर जड़ता की गयी गिर,
तुम तभी तो देख लेते हो
छिपे अगणित विरोधी,
और उनको भी
बदल कर भेष अपना
जो तुम्हारे साथ होने का
सरासर झूठ खुफ़िया-सा वचन
विश्वास का तुमको सुनाते हैं!
सभी ये जन-विरोधी शक्तियाँ
जब मिल गयीं
लख कर निजी हित
और जर्जर ‘इन्क़लाबी गीत’ से
संसार को
नव-पथ-दिशा से रोक
भरमाने लगीं,
सम्मुख तभी तो
आँधियाँ फिर से क्षितिज पर
आज मँडराने लगीं!
संघर्ष-ज्वाला की प्रखर लपटें
पुनः अविश्रान्त लहराने लगीं।