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नवमसर्ग / अम्ब-चरित / सीताराम झा

(कुण्डलिया) -

1.
आयल छथि दशरथतनय, पसरल घर घर बात
जन उत्कण्ठित भेल सब, होयत कखन परात।
होयत कखनपरात निरखि छवि नयन जुड़ायब
छोड़ि देथु प्रन अपन” नृपति कैं जाय बुझायब॥
धनुष टारि नहिं सकल-सकलजन हारि पड़ायल।
विधिप्रेरित जनु दनुजदलन वर घर छथि आयल॥

2.
आइलि जे दिन में छली, रामक निरखि सरूप
भेली सुमुखि निमग्न से, अदभुत हर्षक कूप।
अदभुत हर्षक कूप पड़लि क्यौ छली सयानी
क्यौ सीता लग आबि कहल गदगद मृदुबानी॥
सखी! आइ छल सुदिन छलहुँ घर सौं बहराइलि।
कुमर मनोहर रूप निरखि ऐखन छी आइलि॥

3.
सकल शील सुषमा समटि, जनु विधि रचल ललाम
एक कनक सन गोर ओ, एक घनक सन श्याम।
एक घनक सन श्याम तरित दुति पीतवसनधर
नहिं देखल नहिं सुनल कतहु हम एहन सुनर वर॥
जित अलिगन छवि ललित असित दुति कुंचित केशक।
शोभा कहल न जाय हुनक पुनि अनुपम भेसक॥

4.
धोइत अपन कलंक जौं शरद पूर्णिमा चान
तौं पबैत समता हुनक आन-न मुख उपमान।
आन न मुख-उपमान हुनक हुनके हम देखल
अपन विलोचन लाभ आइ सखि! फलयुत लेखल।
धनि से जनि ओ जनिक समक्ष सतत छथि होइत
थिक तनिको धनिभाग हुनक पद जे छथि धोइत॥

5.
सब बजैत अछि जानि जन, वर अहीं क अनुरूप
“हिनकहि करथु जमाय, वरु विसरि अपन प्रन भूप।”
विसरि अपन प्रन भूप-जानकी रघुवर जोरी
जानि विवाहथु विबश मानि विधि निरमित डोरी।
छी नहिं आब अबोधि वयस बीतल सखि! शैशव
करू स्वयं वरवरण मौन कतबा दिन बैसव॥

6.
बनय निरखितहि नयन सौं, बानी कहि न सकैछ
कोटि कोटि शशिरवि क छवि,?जनिक समक्ष छकैछ।
जनिक समक्ष छकैछ सकल शोभा सखि! तोहर
ने कहि सिरजल कोन कला विधि मूर्ति मनोहर॥
जखन निरखवह अपन नयन सौं छवि मन भावन।
पति-ऐवह तौं मानि हमर कहिनी अति पावन॥

7.
अपर सहेली कहल सखि! नृपक प्रनक अनुसार
धनुष उठौता कोन विधि, कोमलकर सुकुमार।
कोमलकर सुकुमार कतय कत धनुष महेशक
सहि सकैछ की शिशिर कमल दल पात कुहेशक?॥
की पाथर कैं चूड़ि सकै अछि फूल चमेली?
बजली बीचहिं वचन काटि पुनि अपर सहेली॥

8.
नवलवयस सुकुमार लखि, सखि! संशय दय छारि
सिंहक शावक जनमितहि, गज कैं दैछ पछारि।
गज कैं दैछ पछारि बाघ अति लघु-आकारक
करय ठोपभरि दीप नाश पुनि विपुल अन्हारक।
पल में जीतल जे सुबाहुसम दुर्दम दानव
धनुष उठायव तनिक हेतु नहि अजगुत मानव॥

9.
वयसहिसौं नहिं कतहु क्यौ, गुरु लघु जानल जाय
गनल जाय नहिं घरहु में गोढ़ा जेठ कहाय।
गोढ़ा जेठ कहाय तरहितर पड़ल सरै अछि
तरु में पछिले पात जगत में सुफल फरै अछि।
नहि आकृतिअहि जन्तु अबल वा सबल कहाबय
पाबि शक्ति ओ बोध विजय सबथल जन पाबय॥

10.
जहिना छथि सखि! जानकी रामचन्द्र-अनुरूप
तहिना लछुमन उर्मिला, जोड़ी युगल अनूप।
जोड़ी युगल अनूप दुहूदिशि रचल विधाता
फरकय लोचन वाम, दहिन छथि गिरिजा माता॥
ब्रह्म कहै अछि हमर सत्य मानह तों बहिना।
धनुष उठौता राम उठौलनि सीता जहिना॥

11.
हर्षित बजली सहचरी, जनकसुता क प्रधान
सखि अहाँक प्रिय वचन ई, पूर करथु भगवान।
पूर करथु भगवान मनोरथ रानी भूपक
किन्तु बहिन! नहिं कतहु चरित देखल अहिरूपक!।
जनिक हेतु अछि सगर नगर चिन्ता सौं कर्षित
राजकुमरि से हमरि सुमुखि बैसलि छथि हर्षित।

12.
सुधा सनक सखिगन क सुनि, वचन प्रनक अनुसार
जनक-सुता कयलनि प्रगट, मनक अपन उदगार।
मन क अपन उदगार कहय लगली सतपन सौं
सखि! स्वभाव अछि हमर अहीरूपक वचन सौं॥
थिक पालन कर्तव्य जननि-जनक क अनुशासन।
वरु विष देथि पिआय घोंटिली मानि सुधासन॥

13.
सुख में नहिं उछली हरर्षि दहली नहिं दुख पाबि
सदा अपन करतब करी, चली पैर पथ दाबि।
चली पैर पथ दाबि पाबि धन बल भूतल में
राखी सम व्यवहार सखी सज्जन ओ खल में॥
धनि जीवन थिक तकर दुखी जे हो पर दुख में।
सुख बुझैत अछि अपन, नारिनर जे पर सुख में॥

14.
नारिक धर्म पुरान में, अछि वरनित सब ठाम
“देखय सतत प्रसन्न मन, यश सन्तति धन धाम।
यश सन्तति धन धाम आदि सब वस्तुक रक्षा
करय पतिक अनुकूल सकल गृह कृति में दक्ष॥
ताताज्ञा सौं उचित स्वयं वरवरण कुमारिक।
कतहु, कदाचित नहिं स्वतन्त्रता समुचित नारिक॥

15.
जावत नैहर में रहय, ता माइक अनुकूल
हरषि करय घर काज सब, ई थिक धर्मक मूल।
ई थिक धर्मक मूल धाख राखय मन बापक
सीखय सकल सरीति भीति राखय पुनि पापक॥
बसि सासुर पुनि अपन जूति चलबय नहिं तावत।
रहथि भाग्य सौं सासु ससुर जीवित घर जावत॥

16.
बैसलि हर्षित निरखि सखि! हमर करह नहिं सोच
सोचनीय थिकि नारि से, नहिं जकरा संकोच।
नहिं जकरा संकोच रोच पैघक नहिं राखय
व्यर्थ फिरय भरिटोल बाल ओलहिसन भाखय॥
सदिखन अपनहिं सुखक हेतु चिन्ता में पैसलि।
जे पुनि तजि घर काज रहै अछि कलमच बैसलि॥

17.
सेवा स्वामिक छोड़ि जे, देवाराधन धाय
मेवा तजि से विष गहै, खेवा दय भसिआय।
सेख दय भसिआय कतहु एकसरि जे जाइछ
नहि अनका दय नीक निकुत अपनहिं जे खाइछ॥
छोड़ि उचित व्यवहार करय अनुचित सब टेबा।
से थिकि सोचक योग तजय जे गुरुजनसेवा॥

18.
मानय नहिं हित वचन से, सोचनीय नरनारि
बिछुरल संगिक पन्थ में जे नहिं करय पुछारि।
जे नहि करय पुछारि अपन आश्रित परिवारक
सुनल शास्त्र में सोच्य युवति जे इच्छुक जारक।
जे रहि भाइक भवन कलह भाउजि सौं ठानय
से पुनि सोचक जोग ननदि कैं जे नहिं मानय॥

19.
जकरा आङन भवन नहिं, बाढ़नि परय परात
पहिल साँझ नहिं दीप तौं, सोच करक थिक बात।
सोच करक थिक बात नारि जौं फूहरि हेहरि
अपरोजकि जिहुलाहि रहय जे आनक देहरि॥
सोचनीय नरनारि सखी जानह पुनि तकरा।
पोसय चाहय देह होय काजक डर जकरा॥

20.
आनक राखि भरोस जे, नहिं करैछ उद्योग
हाथ पैर बल पाबि जन, से थिक सोचक योग।
से थिक सोचक योग भोग सुख अपनहिं चाहय
भरन करय नहिं परक परन नहिं अपन निवाहय॥
सोचनीय से पाबि लैश-गुन वश अभिमानक।
अपन प्रशंसा करय दोष बाजय जे आनक॥

21.
तकरा हेतुक सोच जे, विषय भोग में लीन
नहिं विचारि परिणाम सखि! लै अछि आनक रीन।
लै अछि आनक रीन हीनमति जीहक पातर
जे हो दम्भी, दयाहीन कपटी ओ कातर॥
किन्तु अछैतहुँ हेतु छोभ मन हो नहिं जकरा।
कहह सोच सखि हयत कोन बातक पुनि तकरा?॥

22.
माता जकरि कलावती, पिता जकर बुधियार
अपने हो सहठूलि तौं, नित सुखमय संसार।
नित सुखमय संसर सत्य कहिनी जौं भाखय
करतव करय विचारि अपन बातक थिति राखय॥
नित उठबै छी हाथ सबहिं कैं देथु विधाता।
हमर बाप सन बाप हमरि माता सनि माता॥

23.
चाहब जे हम जखन से, देता पिता पुराय
हमर सुरक्षा हेतु जे, छथि दिन राति सहाय।
छथि दिन राति सहाय हमर श्री गिरिजा माता
भोगब हम जे हमर कर्मफल लिखल विधाता॥
सुखमय जीवन रहि कुमारि वरु अपन निवाहब।
किन्तु पिता क विरूद्ध स्वर्ग सुख कैं नहिं चाहब॥

24.
“आयब हम पति मानि सखि! लखि छवि हुनक अनूप”
बजली हमरहु जानि तों, अपनहि सनक सरूप।
अपनहिं सनक सरूप प्रकृति आनक सब जानय
चोर जगत कैं चोर साधु साधुक सन मानय॥
थिकहुँ विदेहक सुता अपन नहिं धैर्य टगायब
कने आँच सौं दूध जकाँ हम नहिं उधिआयब॥

25.
जायब हम नहिं कतहु सखि! घरसौं पैर उठाय
हितचिन्तक छथि भवन में हमर बाप ओ माय।
हमर बाप ओ माय, हमर कल्याणक कारण
कैलनि जे प्रन जानि करब जौं तक निवारण॥
तौं हम सुजनसमक्ष कोन गुन आँखि उठायब।
कह कोनबल साधुनारिलग गाल बजायब॥

26.
नयन जुड़ैलहु तोर लौं, पुनि पुनि देखय जाह
हम तौं देखय सतत सखि! अपन नीक अधलाह।
अपन नीक अधलाह देखि जे पद उठबै अछि
से जग सुन्दर पुरुष, नारि सुन्दरि कहबै अछि॥
जनमि जगत में जननिजनक-अनुमति जे मानय।
तकरहि उत्तम भुवनबीच बुधवृन्द बखानय॥”

27.
कहलनि सुनि पुनि एक जनि, सखि! समटै जा ठोर
जनिक हेतु कलपैत छह, तनिक नयन नहि नोर।
तनिक नयन नहि नोर जनिक हेतुक सब कानय
थिक बजबो किछु व्यर्थ बात हित जे नहि मानय॥
ई विधि कय परिहास मौनव्रत सब क्यौ गहलनि।
सबकैं धैर्यक कथा बहुत सीता पुनि कहलनि॥

28.
रामक पुर आगमन सुनि, गुनि गुन शील सरूप
रानी ऐली हरषि उठि, छला जाहि ठाँ भूप।
छला जाहि ठाँ भूप ततय नहि हर्षशोक छल
बैसल आसन स्वस्थचित्त नहि आनलोक छल॥
बजली सविनय “नाथ! सुनल अछि हम छविधामक।
अपन भवन आगमन भेल अछि लछुमन राम क॥

29.
कयलनि पल में ताड़का-राक्षसी क संहार
गौतम मुनि पतनीक पुनि, परसि कयल उद्धार।
परसि कयल उद्धार कते सिद्धाश्रमवासिक
रविक उदय तमजकाँ नाश मुनि-जन दुखराशिक॥
बड़ बड़ राक्षसवीर जनिक सनमुख नहि अयलनि।
से अयला घर हमर कृपा गौरी जनु कयलनि॥

30.
भक लागल सब बीर कैं, छकला धनुष निहारि
थकला सुर नर यतन कै, सकला नहिं क्यौ टारि।
सकला नहिं क्यौ टारि चढ़ौता के पुनि डोरी
जीवनधन! छथि जोग वयस भय गेलि किशोरी॥
छमब हमर तैं विनय बात मानब नहि छोभक।
जानि नारिजन-हृदय भवन ममतामदलोभक॥

31.
अछि सबहिक मनकामना समय आ शक्ति विचारि
“सिया वियाहथु राम सौं नृपति अपन प्रन टारि।
नृपति अपन प्रन टारि जनक जे वचन पुराबथि
वरु अपने सहि कष्ट, परक दुख दुरित दुराबथि॥
चलथि जनक-अनुकूल तनिक वश जगत रहै अछि।
यश भागी से होथि सकल श्रुति शास्त्र कहै अछि”॥

32.
रानिक ई विधि वचन सुनि बजला श्रीमिथिलेश
सुमुखि! सकैछी मानि हम सभक उचित उपदेश।
सभक उचित उपदेश मान्य श्रुति शास्त्र कहै अछि
ततहु अपन हितजनक सतत जे सुयश चहै अछि॥
नहिं गनि गुरु लघु व्यक्ति करी आदर शुभ वानिक।
होइत अछि बपजेठ बुद्धि, नहिं वयस परानिक॥

33.
आधा अंग अहाँ हमर थिकहुँ शास्त्र-अनुसार
तैं समान सब काज में अछि अहाँ क अधिकार।
अछि अहाँक अधिकार ततहु सन्तति पर बेसी
मान्य हमर थिक, उचित अहाँ जे किछु उपदेशी॥
नहि होइत अछि सुमुखि! कतहु तनिका किछु वाधा!
जे जन जानथि अंग अपन गृहिनी कैं आधा॥

34.
सरसिजमुखि! दुइदिवसधरि धैरज धरथु समाज
अगुतयने संसार में होय सिद्ध नहिं काज।
होय सिद्ध नहिं काज अपन अभिमान जनौने
फरय कर्मतरु समय पाबि नहिं बात बनौने॥
लिखि दै छथि कृति देखि जकर जे फल परमेश्वर।
से सकैत अछि टारि जगत में के जन तेसर?॥

35.
रामक अनुपम रूप लखि पुनि बल तेज विकाश
“अवश उठौता धनुष” ई! भेल हृदय विश्वास।
भेल हृदय विश्वास आस विधि हमर पुरौता
सीताकर गहि राम समाजक हृदय जुरौता॥
सुनितहि रानिक हँटल मनक संशय सब भ्रामक।
बतिऐतहि मुदसहित समय आयल विश्रामक॥

बरबा -

36.
भेल हर्ष हियरानिक सुनि प्रिय बात।
मन उतकण्ठित देखक सुखद-परात॥

37.
पावन पतिपदपंकज परसि प्रनाम।
कयलनि मन धय गौरी, निसि विसराम॥

सखिजन-कृत सीतानिकट, रामक गुनगन-गान।
अम्बचरित में भेल ई, नवम सर्ग अवसान॥