चाँदनी ऐसी खिली, जैसे तुम्हारा हास—
स्वस्थ सुंदर हास, वह निर्मल मनोरम हास!
जानता हूँ, तुम जहाँ भी हो वहाँ भी इन्दु
सहस अनदेखे करों से रहस हँस रस-बिन्दु
सहज बरसा रहा, सरसा रहा छवि के सिन्धु!
क्यों न खुश हूँ, नहीं हूँ यद्यपि तुम्हारे पास?
चाँदनी ऐसी खिली, जैसे तुम्हारा हास!
शशि न चिपका एक कन से, वह नहीं मतिमंद!
ग्रंथि मेरी भी खुली, उन्मुक्त जीवन-छंद,
भूल उर के शूल, मैं नभ-फूल-सा सानंद!
अब सफ़ेद गुलाब-सा उर में नया आभास!
चाँदनी ऐसी खिली, जैसे तुम्हारा हास!
द्वन्द्व से है पार जो मेरा तुम्हारा स्नेह,
क्या न ऐसा ही परस के परे यह विधु-मेह?
प्राण-मन शीतल, सुशीतल स्वस्थ सुस्थिर देह!
सब कहीं रस बरसता, क्यों हो मुझे रस-प्यास?
चाँदनी ऐसी खिली, जैसे तुम्हारा हास!