नूतन स्वर मे नवयुगक गीत
के गाबि रहल अछि कान दिऔ’,
अपना भाषामे मधुर भाव
की आबि रहल अछि ध्यान दिऔ’।
जननीक मुहेँ अस्पष्ट स्वरेँ किछु
सिखलहुँ, नहि अछि मोन आब,
भय गेल पाँखि, उड़ि गेलहुँ दूर
तँ रहत प्रयोजन कोन आब।
अस्तित्व निहित अछि जाही मे
तकरे जड़ि पर कुड़हरि बजरल,
अलसायल आँखि कने फोलू
फूसक घर पर चिनगी पजरल।
उजड़ल घर बसल, पुनः उजड़ल
जाइत अछि, जड़ताकेँ त्यागू,
पुरुषत्वक राखि भरोस अपन
उठि आउ, चलू आगू-आगू।
पड़ि जाइ काज प्राणक कदाच
पुलकित भय जीवन-दान दिऔ’,
नूतन स्वर मे नवयुगक गीत
के गाबि रहलअछि, कान दिऔ’।