नाव मँझधार में, पाल तक है फटा
बिजलियाँ कौंधती, रौंदती है घटा
मार मौसम की गर यूँ ही सहते रहे
डूब जाओगे, तुम तैरना सीख लो
झुक के चलना तुम्हें अब गवारा न हो
कोई संसार में अब ‘बिचारा’न हो
आँधियाँ ले उड़ीं, फूल थोड़े बचे
भर लो झोली इन्हें तोड़ना सीख लो
कुछ कबूतर उड़े मंदिरों से, जमे-
मस्जिदों के कंगूरों पैं हँसते हुए
एक -सा दाना दोनों जगह मिल रहा
चुगते दोनों जगह हैं चहकते हुए
शोर ‘धर्मातरण’ का करो अनसुना
तोड़ना भूल कर जोड़ना सीख लो
सब ने मतलब की राहें बिछा दी यहाँ
मजहबों की दुकानें सजा दी यहाँ
खून अपनों ने अपनों का ही कर दिया
प्यार माँगा तो उल्टे कजा दी यहाँ
लीक को छोड़ दो, जाल को तोड़ दो
राह को दो दिशा, मोड़ना सीख लो