नहीं बाबा नहीं-
यह भाषा नहीं चलेगी!
प्रसन्न को
खुश लिखो,
व्यक्ति को
आदमी,
और यह क्या
मृत्यु?
मौत! मौत, लिखो!
क्या कहा?
ईश्वर?
छी-छी...
वह तो कब से
है ही नहीं।
सच्ची, तुम्हें आज का
कवि बनाना तो
लुकमान हकीम के भी
बस का नहीं
देखो भई,
ये नदी, पत्ते
फूल, पक्षी
ये सब कुछ भी
अब नहीं होते
बस बर्तन, भांडे
कपड़े, चप्पल
झोला, ऐनक, कारपोरेशन
की टूटी का पानी
वगैहरा, वगैहरा ही
हमारी स्थिति का
सच है
इसलिए हम उनको
लिखते हैं...
हाँ, यादें-वादें-वे
भी कुछ नहीं-
प्रेम!
सुनो, मैं तुम्हें
शायद नहीं समझा पाऊँगा
कि प्रेम भी ईश्वर की तरह
मर चुका है
और कविता में
उत्तर आधुनिक का दौर है
इसलिए
मेरा तो तुम पीछा छोड़ो और
किसी रिवाइवलिस्ट का
चेला हो लो!