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नहीं छेड़ती औरतें / संगीता गुप्ता


नहीं छेड़ती औरतें
भीड़ भरी बस में
या राह चलते
आदमी को
न फाड़ती हैं उनके कपड़े
न करती हैं
उनका बलात्कार

खो जाता है
उनका प्रतिरोध
खू़खार समाज के
समवेत शोर में

बस डबडबायी आँखों से
देखती रहती हैं
घटता हुआ
अघटनीय
और लज्जित होती हैं
अपने ही गर्भ से उपजे
आदिम नर पर
जो नहीं जानता
वह इतना क्रूर क्यों है

आधी दुनिया की मालिक
बहुत सोचती है
थक जाती है
और क्षमा कर देती है
अन्ततः
बीमार, कमजो़र आदमी को