नहीं जानता मैं भगवा, नहीं मुझे प्रभुता का ध्यान।
मेरे तो, बस, एकमात्र हो तुम ही मन-मति जीवन-प्रान॥
रहता सदा तुम्हारे पावन प्रेम-सुधा-रस-निधि में मग्र।
इसी हेतु रहता मैं तुमसे हूँ प्रियतमे! सदा संलग्र॥
सुखी देखता हूँ जब तुमको, मिलता मुझको मोद-महान।
इसी स्वार्थ-रक्षामें रहता, नहीं तनिक तुमपर एहसान॥
स्थान तुम्हारे सदा सुरक्षित, सदा तुम्हारा ही अधिकार।
एकमात्र तुम ही हो स्वामिनि, तुम ही उनकी हो आधार॥
तुमने दिव्य मनोहर अपना देकर प्रेम-सुधा-रस-दान।
ऋणी बनाया मुझे सदाके लिये सहज ही, हे रसखान!॥