कानन का सौन्दर्य लूट कर सुमन इकट्ठे कर के
धो सुरभित नीहार-कणों से आँचल में मैं भर के,
देव! आऊँगा तेरे द्वार-
किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूँगा वह उपहार!
खड़ा रहूँगा तेरे आगे क्षण-भर मैं चुपका-सा,
लख कर मेरे कुसुम जगेगी तेरे उर में आशा,
देव! आऊँगा तेरे द्वार-
किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूँगा कुछ उपहार!
तोड़-मरोड़ फूल अपने मैं पथ में बिखराऊँगा,
पैरों से फिर कुचल उन्हें, मैं पलट चला जाऊँगा
देव! आऊँगा तेरे द्वार-
किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूँगा वह उपहार!
क्यों? मैं ने भी तेरे हाथों सदा यही पाया है-
सदा मुझे जो प्रिय था उस को तू ने ठुकराया है!
देव! आऊँगा तेरे द्वार-
किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूँगा वह उपहार!
शायद आँखें भर आवें-आँचल से मुख ढँक लूँगा;
आँखों में, उर में क्या है, यह तुझे न दिखने दूँगा!
देव! आऊँगा तेरे द्वार-
किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूँगा कुछ उपहार!
दिल्ली जेल, अप्रैल, 1932