Last modified on 27 नवम्बर 2020, at 19:56

नहीं पाया जाऊंगा / विजय सिंह नाहटा

नहीं पाया जाऊंगा
जीवन के किन्हीं जगमगाते उत्सवों की चौंधियाती रोशनी में
न रहूंगा जंगल के मौन में घुला हुआ: आदमकद त्रासदी-सा
गर रहूंगा तो: अदृश्य
पदचिन्हों की लिपि में गुमशुदा तहरीर-सा
खेत खलिहानों की एक विलुप्त भाषा में
हवा के संग-संग अस्फुट बजता रहूंगा
पेट की भूख के संगीत में उस सरगम की तरह
बजता रहूंगा: ख़ामोश
पङा रहूंगा गर्द में ढंका
टूटा-टूटा, बिखरा-बिखरा
गोया, अगीत की तरह: अनिबद्ध
महज, आकस्मिक ही रहूंगा
अस्तित्व के जनपद में: अस्थिर प्रवासी
एक जीवंत किंवदंती में प्रश्नाकुल-सा
गर
कहीं रहूंगा शर्तिया, साबुत: कुछ बचा खुचा-सा
किसी ठौर: धरती के किसी अंचल में
नागरिकता का अनुज्ञा पत्र धारे
तो यहीं कहीं
रहूंगा कविता की किसी जर्जर पंक्ति में
अभ्युदय की तरह क्षितिज की ओर उठता हुआ
और, उठाये रहूंगा समूची पृथ्वी का भार।