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नहीं बिके जो क़लम / राजेन्द्र स्वर्णकार

नहीं करेगी क्षमा , क़लम की सौ - सौ पुश्तें भी उनको !
कुत्सितजन के चरण धोक कर नाम ज़ियारत देते जो !
वृहद् विशद् दायित्व ; क़लम! मत भय कर, मत कर तू विश्राम,
चलती चल अविराम, स्वयं के रक्त में अपनी देह डुबो !

यहां अनधिकृत अधिकारी बन' हड़पें पर - अधिकारों को !
महिमामंडित किया जा रहा , मंच - मंच मक्कारों को !
पड़े हुए हैं यहां उपेक्षित, भव्य - दिव्य मंदिर - प्रांगण ;
अर्घ्य - तिलक - सम्मान अंध दुर्गंध भरे गलियारों को !

छ द् मी - छली सियाही का भी अर्थ उजाला कहते हैं !
गुंथे संपोलों नाग बिच्छुओं को मणि माला कहते हैं !
घोर स्वार्थवश महापाप करते कब हिचके निर्लज ये ?
गुजरे - गये अधम ; गंगा को गंदा नाला कहते हैं !

लार टपकते जम बैठे ये , हर चौके हर थाली पर !
नहीं जड़ों में मिलते ये , पर मिलते डाली - डाली पर !
पावन स्वेद की दो बूंदें भी नहीं इन्होंने अर्पित की ;
हक़ जतलाते मिलते ये , सामंत बने हरियाली पर !

ढीठ स्वघोषित शिखरपुरुष ; गलियों - बाज़ारों गुर्राते !
मटमैले मैले मन वाले , दर्पण को भी झुठलाते !
क्षुधा - एषणा - लिप्सा - पीड़ित ; दनुज मनुज से बन बैठे ,
लज्जा होती तनिक  ; डूब' चुल्लू पानी में मर जाते !

आत्म - प्रशंसक दंभी रहते ताड़ वृक्ष ज्यों तने तने !
घृणित घिनौनों पतितों के मन - मस्तक विष्टा - कीच सने !
सड़ांध - सागर इनके भीतर का देखो , घिन हो जाए,
जग को भरमाते फिरते ये भ्रष्ट - अशिष्ट ; विशिष्ट बने !

ठोस स्वर्ण प्रतिमाएं पस्त - पराजित खोखल पुतलों से !
गुणी गहन गंभीर , प्रताड़ित होते पग - पग छिछलों से !
श्रेष्ठ सृजन कुम्हला' - मुर्झाए पूर्वाग्रह - झंझाओं में ,
हंस पिट रहे यत्र तत्र , अधिनायकवादी बगुलों से !

लामबंद लंपट लुच्चे ठग कपटी कुटिल कमीने घाघ !
जुगलबंदियां नागों - कागों की ; गूंजित वीभत्सी राग !
झूम रहे हैं गिद्ध - भेड़िये , गलबहियां डाले - डाले ,
बजे दुंदुभी दुराग्रहों की ; चाटुकार मिल' खेलें फाग !

नहीं बिके जो क़लम ; दोमुंहों - दुष्टों को धिक्कारेगी !
सदा सनातन शिवम् सुंदरम् सत्यम् वह उच्चारेगी !
जीवित निर्भय सत्य ; … जान कर युग होगा आश्वस्त् - प्रसन्न,
एक पांत प्रतिक्रिया में विष भी उगलेगी - फुत्कारेगी  !
क़लम न लेकिन कभी - किसी से कहीं हार स्वीकारेगी !!!