वह दुनिया की सबसे ऊँची छत थी
वहाँ मैं एक औरत को बाँहो में थामे
उसके होंठ चूम रहा था
किसी बाल्मीकि ने पढा नहीं श्लोक
जब तुम आए हमारा शिकार करने
हम अचानक ही गिरे जब वह छत हिली
एकबारगी मुझे लगा था कि किसी मर्द ने
ईर्ष्या से धकेल दिया है मुझे
मैं अपने सीने में साँस भर कर उठने को था
जब मैं गिरता ही चला
मेर चारों ओर तुम्हारा धुँआ था
यह कविता की शुरआत नहीं
यह कविता का अंत था
हमें बहुत देर तक मौका नही मिला
कि हम देखते कविता की वह हत्या
मेरी स्मृति से जल्द ही उतर गई थी वह औरत
जिसे मैं बहुत चाहता था
आखिरी क्षणों मे मेरे होठों पर था उसका स्वाद
जब तुम दे रहे थे अल्लाह को दुहाई
धुँआ फैल रहा था
सारा आकाश धुँआ धुँआ था
कितनी देर मुझे याद रहा कि मैं कौन हूँ
मैंने सोचा भी कि नहीं
कि मैं एक जिहाद का नाम हूँ
मेर जल रहे होंठ
जिनमें जल चुकी थी
एक इंसान की चाहत
यह कहने के काबिल न थे
कि मैं किसी को ढूँढ रहा हूँ
वह दुनिया की सबसे ऊँची छत थी
मेर जीते जी हुई धवस्त
मेर बाद भी बची रह गई थी धरती
जिस पर जलने थे अभी और अनिगनत होंठ
या अल्लाह!