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नाखून / हेमन्त कुकरेती


ये मेरे साथ जन्म से हैं
अँधेरे में चमकते
उजाले में पीले पड़ते
ये न जाने कब बढ़ जाते हैं ?

पूरे शरीर में
तय है इनकी एक जगह
मैं इन्हें मोड़कर
कहीं भी ले जा सकता हूँ
कभी-कभी इन्हें टूटते
देखता हूँ नींद में
खुशी होती है कि बोझ
कम हो रहा है शरीर का

मेरी तरफ़ बढ़ते
ये कई बार मुझे डरा जाते हैं
मेरे एकाएक सहमने पर
हँसते हैं ठठाकर

मैं इन्हें दुश्मनों के नाम से
याद करता हूँ
हालाँकि ये उनकी तरह
अपने भीतर नहीं छुपे रहते

इतिहास से मिली नफ़रत
मेरी अपनी है
उसे झेलते-झेलते
मैं लड़ाकू हो चला हूँ

ये इतना नहीं सोच सकते
बस, हँसते हैं
ज़रा-सा दबाने पर
शायद इन्हें पता नहीं कि
इनका भी इतिहास है
इनकी भी नफ़रत है