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नाच / पूनम भार्गव 'ज़ाकिर'

नाच कि तू फड़कती लौ
के उन्माद में है
नाच कि तू जलने के सुख
की बयार में है

नाच कि ईंट और गारा
तेरे शरीर से निकलता है
नाच कि तेरे सीमेंट से
एक निर्माण सम्भव है

नाच कि
तू वियोग में है
और
तब भी नाच...
जब तू संयोग में है

नाच कि तू धुरी है
और
कुम्हार के हाथ चाक है
नाचने का सुख ...
नचाने वाले को न दे पगली
तू नाच कि...
तूने आज किसी को
जी भर के गाली दी है

नाच कि
शिखरों पर खड़ा
शिखंडियो का पाखण्ड
खण्डित हो
नाच कि...!
कदमों की धमक
बहरी व्यवस्था की
चेतना में सिहरन भरे...

नाच तब भी जब
पैरों के मध्य से
रिस्ता हुआ तेरा रक्त
निर्माण न कर दे
लाल महासागर का

नाच इतना कि...
बहता रज़ोरक्त कहे
रे इंसान! मेरा होना
तेरे उपजने की खाद है
वस्त्र पर लगा दाग
मातृत्व का श्रंगार है

नाच कि तू तेरे नाचने से
नटराज भी
अभिमंत्रित हैं
नाच कि लास्य पर सिर्फ़
तेरे हुक़ूक़ हैं

नाच इतना कि...
अंगों का संचालन छिने
संगीत के वश से
नाच कि गति मापने के यंत्र
थक कर कहें
रुक...!

नाच इतना कि
मसामों का पसीना
शीतल करे धधकती आंच
नाच कि...
ब्रह्मांड में तांडव के
क्रियान्वित हों
नए अध्याय ...!

नाच कि...
पूरी क़ायनात तेरे
नाच के इश्क़ में हो
हर कतरा
जो तेरे जिस्म से गिरे
वो तेरा रूप हो

नाच इतना कि...
टूटे हाड़, बहे लहू
रिसे रँग हथेलियों से...
तलवों में उतर आए
सुर्ख आलता बन जाए

नाच इतना कि ...
तेरे वक्ष से
बहती दूध की धारा
उज्ज्वल कर दे
हर कामुकता को

नाच कि...
चक्र महाभिनिष्क्रमण का
उल्टा चले और...
त्याग के पांव पृथ्वी में
कम्पन पैदा कर दें
सिद्धार्थ बुद्ध होने की
दशा के पार्श्व में
यशोधरा की छवि देखें

नाच इतना कि...
सृष्टि के महारास में
मग्न तू
आनन्द का पर्याय हो
नाच इतना कि...
अन्त
आरम्भ
का माध्यम बने

नाच इतना कि...
कुंडलिनियाँ का शोर
एकत्र हो कहे तुझसे
कि अब नाच का सुख
तेरे भीतर जाग्रत हो
आवाहन को आतुर है

नाच कि नाच का उद्देश्य
अणुओं को समेट
परम् अणु की ओर
अग्रसर होने की दिशा में है

नाच अंतिम बार कि
अच्छी बुरी समस्त शक्तियाँ
तेरी ऊर्जा कि तरंगों से
प्रवाहित हो समवेत
आवेगों, सम्वेगों में नाच उठें

नाच इतना कि...
नाच स्वान्तः सुखाय
के वजूद को खारिज कर
विश्व में स्थापित हो

नाच इतना कि...
लहूलुहान हों तेरे क़दम
जैसे ही ऊपर उठें

उसे! आना ही पड़े
तेरे कदमों तले
हथेलियाँ रख वह कहे ...

कि बस ...।
मैं थक गया
तुझमें
नाचते
नाचते
हे मुक्तिबोध!