रात सपने में
रिहर्सल करते दिखा
नाटक का नायक
रोज़ की तरह
भरे नहीं थे रिहर्सल कक्ष
नाटक के पात्रों से
इसलिए
नाटक के नायक की आवाज
साफ-साफ सुनायी पड़ रही थी
मराण्डी की माँ के कानों में
रिहर्सल कक्ष की खिड़की से बाहर
जहाँ माँ का बसेरा था
माँ सत्तर के पार
फिर भी महसूस करती
जमाने के सच
अपनी आंखों और कानों से
निरंतर
निर्बाध
नाटक का नायक
जोर-जोर से चिल्लाकर
बोल रहा था --अब कुछ भी नहीं सुरक्षित इस जहाँ में
बाज़ार ने बेच दिया दुनिया से
प्रेम और स्नेह
किससे लगाएँ दिल अपना
किससे फिर नेह
लाभ और हानि के चक्र में
फँसी है दुनिया यह गोल
बिक रही ममता मिट्टी के मोल
सबके अपने राग
सबके अपने बोल
वे बेच रहे
जंगल, जमीर और माटी
दुनिया से गायब कर रहे अपनी ही थाती
इसी बीच
नाटक की नायिका आई
जोर से दरवाजे की घंटी बजाई
कुछ पल बाद
माँ बुदबुदाई--
इनसे तो अच्छे
हमारे ही पुरखे थे
अपढ़, अज्ञानी
जिन्होंने बचाया
जंगल, ज़मीन और पानी |
उचट गयी नींद मेरी
तेरे ही सपने से
होश में आओ ओ दिलजानी
हँसकर बोली मेरी प्रिया रानी