जो अक्सर चुप रहते हैं,
अपना प्रेम और पीड़ा मन में छिपाते हैं
वो सब एक दिन पहाड़ बन जाते हैं।
जो कहते है सुनते है और बहते है
अपने प्रेम और पीड़ा को लुटाते है
वो सब एक दिन नदी बन जाते है।
एक दिन नदियाँ पहाड़ों को हिला देंगी।
समाधि में लीन शिव को जगा देगीं।
पहाड़ों के सूखे आसूं, रेत बन झरते हैं।
इन कणों से सीपियों के गर्भ पलते हैं।
पहाड़ों की चुप से नदी के मन जलते हैं
पहाड़ों के दुःख, पीड़ा और अवसाद
पेड़ बन अपनी ही छाँव में जलते हैं
सच कहती थी नदी, अहसास भी भला कभी
मरते हैं।
पूछ बैठा कोई पहाड़ किसी नदी से किसी दिन
कितना बोलती हो, बहती हो थकती नहीं हो?
कभी रोई होगी तुम ऐसी लगती तो नहीं हो
नदी मुस्काई दो बूंद उसकी आखों में छलक आई।
हम दोनों की पीड़ा,एक जैसी बस आसूं अलग हैं
तुम्हारे आसूं सूखी रेत, तो मेरे बूंदों से तरल है।
कोई "बिन कहे" पहाड़ हो जाता है
मर जाता है
कोई कह कह कर, बह बह कर
नदी बन जाता है।
दोनों के रोने के अपने बहाने हैं
पहाड़ों के नदियों से नाते पुराने हैं।