नानी का तीन कमरों का घर गर्मियों में ठंडा
सर्दियों में कितना गर्म रहता था
पीछे आंगन में हरसिंगार और कनेर का पेड़
आगे अंगने के एक ओर क्यारी में गैंदा गुलाब
दूसरे छोर पर पड़ती गाँव के पुराने नीम की छांव
उस छांव के बीच उठती सफेद चूने की पुती चाहरदीवारी
आलिंगन में अपने समेट लेती पूरा घर,
जैसे हो उसका परिवार और कर देती बंद किवाड़।
किवाड़ के सामने कुछ दूरी पर थे अन्य मकान
बाकी चाहरदीवारी के तीन तरफ थे खेत खलिहान
ठंडी चूने की चाहरदीवारी टाप कर अकसर आ जाते थे
गर्म दोपहरी को कुछ शरारती नटखट लू के झोंके
घर के अंदर सुस्ताने
फर्राटे वाले पंखे की हवा खाने
सर्दियों में कूद आती थी शीत लहर
रजाई में दुबकने रात के दूसरे पहर
नानी थी अनपढ़ पर अडिग सयानी
चाहरदीवारी में ही करती बसर ज़िन्दगानी
हम ही इकट्ठा हो छुट्टियाँ मनाने जाते
तंगी नोक झोंक होती पर मज़े खूब आते
घर बन जाता सराय और बन जाती नानी परिचारिका
यूं ही पलटता जाता वक्त का सफ़ा
धीरे धीरे हम सब सिमटने लगे
नये लोग नये परिवेश में...
बिसरा दिया हमने नानी के पुराने घर का रस्ता
माँ मौसी मामा मामी बारी-बारी से कुछ घण्टों
को हो आते, कभी-कभार ले आते खैर-ख़बर
नानी और उनके पुराने मकान की
एक बार नानी पड़ गई कुछ अधिक बीमार
गाँव वालों ने भेजा संदेशा
पर कोई लिवाने को था न तैयार;
सबके पास था काम और जिम्मे हज़ार
माँ और उनके रिश्तेदारों का जान विचार
हुई कुछ तल्लखियाँ टकरार
अंत में नानी को संग लिवाने को मैं हुआ तैयार
न जाने कितने वर्षों पश्चात
मैं इस रस्ते पर जा रहा था
बचपन उमड़ कर सामने आ रहा था
पर गाँव पहुँच सब कुछ अनपहचाना था
नानी की तरह, उसका घर भी जर्जर हो चुका था
पुरानी वह चाहरदीवारी में आ चुकी थी कितनी दरार
सीलन, पपड़ी झड़ा चूना और जगह-जगह काई
कहीं कहीं फूट आयी थी पौध
पर भीतर घर की ठंडक थी
वैसे ही बरकरार
नानी को देख लगा जैसे वह भी
बन चुकी थी ऐसी ही चाहरदीवार
चेहरे पर थी झुरियों की दरार, रंग चुका था झड़
पड़ चुकी थी झाईं
पपड़ी से चिपके थे शुष्क होंठ
कान, ठुड्डी होंठ किनारे उग आयी थी पौध
पर भीतर आँचल में ठंडक
थी वैसे ही बरकरार
नानी को ले आया मैं अपने साथ
मेरे नये घर की कैद में वह
पुरानी बाउड्री वॉल नहीं पायी जम
कुछ ही दिनों में
तोड़ दिया नानी ने दम
नानी के मृत्यु भोज पर गाँव से आये
लोगों ने बतलाया कि पन्द्रह दिन पहले
तेज तूफानी बारिश में गिर गई थी
नानी के घर की बाउण्ड्री की दीवार
दीवार और नानी लगभग साथ ही ढह गये
छोड़ गये पीछे
ज़िन्दगी की धूप की तपिश
हताशा के थपेड़ों के बीच
झुलसते, बिखरते, दम तोड़ते रिश्ते।
रह गयी यादों में बस
वह सुरक्षा का घेरा और ठंडक की छाँव