बगीचे की ढलान को सीढ़ियों में बदलता हूँ
कि उसके ढलवाँ किनारे तक पहुँच जाऊँ
बिना लुढ़के, बिना फिसले
अगली बार बस चलता चला जाऊँ बिना सहमे,
बना देना चाहता हूँ इस बग़ीचे को आसान जगह
कोई अपनी मुक्त लम्बी छायाओं से
दिन खुलते ही भरता हूँ अपने भीतर किसी चाभी को
और लगाता छलांग जीवन के कोलाहल में
रखना चाहता हूँ काग़ज़ क़लम की तरह
मैं सीढ़ियों को दुर्गम रास्ते के लिए
पर कहीं पहुँच कर भी नहीं पहुँचता कहीं
फिर कहीं और पहुँचने के लिए निकला हूँ मैं
बग़ीचे में सीढ़ियाँ बिछाता
एक आज कल दूसरी फिर पूरी हो जाएंगी
क्या कहालाएंगी वे
कोई नाम तो है उनका भी
08.06.1999