कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती न करना मेरे साथ ।
शब्दों को खुल जाने दो,
जैसे खुलकर निकल आता है भोर
जैसे जलस्रोत बहुत दूर तक बहा ले जाता है पत्थर
जनविहीन कल-कल ध्वनि के साथ
दिगन्त के घर में
हम लोगों के नाम मिट जाते है चुपचाप ।
बहुत क्षीण
टप् टप् खुल पड़ता है घास के सर से नीला रंग,
अब किसी दिन
कोई ज़बरदस्ती न करना मेरे साथ ।
मूल बांग्ला से अनुवाद : जयश्री पुरवार