मैं उठता हूँ, वह उठती है,
मैं चलता, वह चलती।
मैं दौडूँ तो साथ दौड़ती,
सदा साथ ही रहती।
पकडूँ तो मैं पकड़ न पाऊँ,
अजब खेल है उसका।
हाथ न आवे, साथ न छोड़े,
यह स्वभाव है किसका?
जल्दी से तुम नाम बताओ,
नहीं समझ में आया?
मैं ही तुम्हें बताए देता,
वह है मेरी छाया।
-साभार: नंदन, मई, 1994, 30