हमारे निर्धन के धन राम
चोर न लेत, घटत नहिं कबहूँ, आवत गाढ़ैं काम ।
जल नहिं बूड़त अगिनि न दाहत, है ऐसौ हरि नाम ।
बैकुँठनाथ सकल सुख-दाता, सूरदास-सुख-धाम ॥1॥
बड़ी है राम नाम की ओट ।
सरन गऐं प्रभु काढ़ि देत नहिं, करत कृपा कैं कोट ।
बैठत सबै सभा हरि जू की, कौन बड़ौ को छोट ?
सूरदास पारस के परसैं मिटति लोह की खोट ॥2॥
जो सुख होत गुपालहिं गाऐँ ।
सो सुख होत न जप-तप कीन्हैं, कोटिक तीरथ न्हाऐँ ।
दिएँ लेत नहिं चारि पदारथ, चरन-कमल चित लाऐँ ।
तीनि लोक तृन-सम करि लेखत, नंद-नँदन उर आऐं ।
बंसीबट, बृंदावन, जमुना, तजि बैकुँठ न जावै ।
सूरदास हरि कौ सुमिरन करि, बहुरि न भव-जल-आवै ॥3॥
बंदों चरन-सरोज तिहारे ।
सुंदर स्याम कमल-दल-लोचन, ललित त्रिभंगी प्रान पियारे ।
जे पद-पदुम सदा सिव के धन, सिंधु-सुता उर तैं नहिं टारे ।
जे पद-पदुम तात-रिस-त्रासत, मनबच-क्रम प्रहलाद सँभारे ।
जे पद-पदुम-परस-जल-पावन सुरसरि-दरस कटत अब भारे ।
जे पद-पदम-परस रिषि-पतिनी बलि, नृग, व्याध, पतित बहु तारे ।
जे पद-पदुम रमत बृंदावन अहि-सिर धरि, अगनित रिपु मारे ।
जे पद-पदुम परसि ब्रज-भामिनि सरबस दै, सुत-सदन बिसारे ।
जे पद-पदुम रमत पांडव-दल दूत भए, सब काज सँवारे ।
सूरदास तेई पद-पंकज त्रिबिध-ताप-दुख-हरन हमारे ॥4॥
अब कैं राखि लेहु भगवान ।
हौं अनाथ बैठ्यौ द्रुम-डरिया, पारधि साधे बान ।
ताकैं डर मैं भाज्यौ चाहत, ऊपर ढुक्यौ सचान ।
दुहूँ भाँति दुख भयौ आनि यह, कौन उबारे प्रान ?
सुमिरत ही अहि डस्यौ पारधी, कर छूट्यौ संधान ।
सूरदास सर लग्यौ सचानहिं, जय जय कृपानिधान ॥5॥
आछौ गात अकारथ गार्यौ ।
करीन प्रीति कमल-लोचन सौं, जनम जुवा ज्यौं हार्यौ ।
निसि दिन विषय-बिलासिन बिलसत, फूट गईं तब चार्यौ ।
अब लाग्यौ पछितान पाइ दुख, दीन दई कौ मार्यौ ।
कामी, कृपन;कुचील, कुडरसन, को न कृपा करि तार्यौ ।
तातैं कहत दयाल देव-मनि, काहैं सूर बिसार्यौ ॥6॥
तुम बिनु भूलोइ भूलौ डोलत ।
लालच लागिकोटि देवन के, फिरत कपाटनि खोलत ।
जब लगि सरबस दीजै उनकौं, तबहिं लगि यह प्रीति ।
फलमाँगत फिरि जात मुकर ह्वै यह देवन की रीति ।
एकनि कौं जिय-बलि दै पूजै, पूजत नैंकु न तूठे ।
तब पहिचानि सबनि कौं छाँड़े नख-सिख लौं सब झूठे ।
कंचन मनि तजि काँचहिं सैंतत, या माया के लीन्हे !
तुम कृतज्ञ, करुनामय, केसव, अखिल लोक के नायक ।
सूरदास हम दृढ़ करि पकरे, अब ये चरन सहायक ॥7॥
आजु हौं एक-एक करि टरिहौं ।
कै तुमहीं, कै हमहीं माधौ, अपने भरोसैं लरिहौं ।
हौं पतित सात पीढ़नि कौ, पतितै ह्वै निस्तरिहौं ।
अब हौं उघरि नच्यौ चाहत हौं, तुम्हैं बिरद बिन करिहौं ।
कत अपनी परतीति नसावत , मैं पायौ हरि हीरा ।
सूर पतित तबहीं उठहै, प्रभु जब हँसि दैहौ बीरा ॥8॥
प्रभु हौं सब पतितन कौ टीकौ ।
और पतित सब दिवस चारि के, हौं तौ जनमत ही कौ ।
बधिक अजामिल गनिका तारी और पूतना ही कौ ।
मोहिं छाँड़ि तुम और उधारे, मिटै सूल क्यौं जी कौ ।
कोऊ न समरथ अघ करिबे कौं, खैंचि कहत हौं लीको ।
मरियत लाज सूर पतितन में, मोहुँ तैं को नीकौ ! ॥9॥
अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल ।
काम-क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल ॥
महामोह के नुपूर बाजत, निंदा-सब्द-रसाल ।
भ्रम-भोयौ मन भयौ पखावज, चलत असंगत चाल ।
तृष्ना नाद करति घट भीतर, नाना बिधि दै ताल ।
माया को कटि फेटा बाँध्यौ, लोभ-तिलक दियौ भाल ।
कोटिक कला काछि दिखराई जल-थल सुधि नहिं काल ।
सूरदास की सबै अविद्या दूरि करौ नँदलाल ॥10॥
हमारे प्रभु, औगुन चित न धरौ ।
समदरसी है नाम तुम्हारौ, सोई पार करौ ।
इक लोहा पूजा मैं राखत, इक घर बधिक परौ ।
सो दुबिधा पारस नहिं जानत, कंचन करत खरौ ।
इक नदिया इक नार कहावत, मैलौ नीर भरौ ।
जब मिलि गए तब एक बरन ह्वै. गंगा नाम परौ ।
तन माया, ज्यौं ब्रह्म कहावत, सूर सु मिलि बिगरौ ॥
कै इनकौ निरधार कीजियै, कै प्रन जात टरौ ॥11॥