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नाविक (साहस) / शिशु पाल सिंह 'शिशु'

दीखता है कि घटायें, घटाटोप, लेकर घन घुमड़े हैं;
मिलाने को मेघों से हाथ, ऊर्मियों के उर उमड़े हैं।
निशा के काले केश, हरेक दिशा पर परदा डाले हैं;
बिजलियों के मतवाले रोष, सँभाले भीषण भाले हैं।

प्रभंजन के झोंके वीभत्‍स, ठहाका भर हहराते हैं;
धार का जल उभार कर, घोर अमा में ज्‍वार उठाते हैं।
लिये भूकम्‍पों के आवेश, कगारों से टकराते हैं;
कज्‍जलों के शिखरों पर चढ़े, प्रलय के शंख बजाते हैं।

नेत्र मुँदने पर चारों ओर, तिमिर जैसे छा जाता है;
पलक खोले भी उसी प्रकार, न तम में कुछ दिखलाता है।
किन्‍तु नाविक कब शंकित हुआ, विघ्‍न की इन बौछारों से;
जुड़ गया पल भर में सम्बंध, बाहुओं का पतवारों से।

हठीले साहस ने दूसरे पार को, धावा बोल दिया।
ठान कर संगर तूफान से, नाव का लंगर खोल दिया॥