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नावें थक गयीं / किशन सरोज

दूर तक फैला नदी का पाट, नावें थक गयीं

शाल वॄक्षोँ से लिपटकर,
शीश धुनती–-सी हवाएं
बादलों के केश, मुख पर
डाल, सोयी–-सी दिशायें
धुन्ध की जुडने लगी फिर हाट, नावें थक गयीँ

मोह में जिसका धरा तन
हो सका अपना न वह जल
देह–मन गीले किये, पर
पास रूक पाया न दो पल
घूमते इस घाट से उस घाट, नावें थक गयीँ

टूटकर हर दिन ढहा
तटबन्ध—सा सम्बन्ध कोई
दीप बन हर रात
डूबी धार में सौगन्ध कोई
देखता है कौन किसकी बाट, नावें थक गयीँ