कब कहा है गलतियों कि कोई समझाइश न हो 
आदमी के कद कि लेकिन रोज पैमाईश न हो 
दीप यों ही जगमगाएं इस दिवाली की तरह 
तीरगी की आपके जीवन में गुंजाईश न हो 
चाहते हैं सब कि बदले ये अंधेरों का निजाम 
पर हमारे घर किसी बागी कि पैदाईश न हो 
हो अगर काबिल बहस जो मुद्दआ तो ठीक है 
वरना यूँ ही बेवजह की जोर आजमाईश न हो 
सब वही हैं फिर मुझे क्यूं यूँ लगा करता "विजय"
जैसे कुछ अपना नहीं हो एक भी ख्वाहिश न हो