♦ रचनाकार: अज्ञात
भारत के लोकगीत
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निऊँ कह रही धौली गाय, मेरी कोई सुनता नईं ।
मेरे कित गए सिरी भगवान, मैं दुख पाय रई ।
मेरा दूध पीवे संसार, घी से खायँ खिचड़ी,
मेरे पूत कमावें नाज मैंघे भा की रूई ।
मेरी दहीए सुखी संसार, जब भी मेरे गल पै छुरी!
भावार्थ
--'यूँ कह रही है सफ़ेद गाय, मेरी बात कोई नहीं सुनता । मेरा भगवान कहाँ चला गया है ? मैं यहाँ दुख पा
रही हूँ । यह सारी दुनिया मेरा दूध पीती है । मेरे दूध से बने घी को खिचड़ी में डाल कर खाती है । मेरे पुत्र (मेरे
बछड़े ) ही तो अनाज पैदा करते हैं । उन्हीं के परिश्रम से महंगे भाव में बिकने वाली रुई भी उगती है । मेरे दूध
से ही दही बनाकर खाता है यह संसार और सुखी रहता है । इसके बावजूद भी जब मैं बूढ़ी हो जाती हूँ तो छुरी मेरे
ही गले पर चलती है ।'