निकल पड़े बँजारे, रे भैया
निकल पड़े बँजारे ...।
बहती हुई नदी की धारा-सा इनका जीवन है।
सभी पेड़ इनके घर की छत सब दुनिया आँगन है।
जहाँ हो गई रात सो गए
उठकर चलें सकारे।
निकल पड़े बँजारे, रे भैया
निकल पड़े बँजारे ...।
तपा-तपाकर लोहे को लाचार बना देते हैं।
पीट-पीटकर फिर उसको औजार बना देते हैं।
मेहनत हार गई है इनसे
पर ये कभी न हारे।
निकल पड़े बँजारे, रे भैया
निकल पड़े बँजारे ...।
सरदी इनको अकड़ाती है, वर्षा इन्हें जलाती।
गरमी की दोपहरी इनके, तन को है झुलसाती।
गाँव-गाँव और गली-गली में
फिरते मारे-मारे।
निकल पड़े बँजारे, रे भैया
निकल पड़े बँजारे ...।