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निक्का पैसा / रमेश तैलंग

निक्का पैसा कहाँ चला,
कहाँ चला जी, कहाँ चला ।

पहले रहा हथेली पर
फिर जा गुड़ की भेली पर
चिपक गया चिपकू बनकर
यहाँ चला न वहाँ चला ।

धूप लगी, गुड़ पिघल गया
निक्का पैसा निकल गया
कहाँ चलूँ की झंझट में
गिरा सेठ की गुल्लक में
यहाँ चला न वहाँ चला ।

किसी तरह मौक़ा पाकर
गुल्लक से निकला बाहर,
खुली सड़क थी इधर-उधर
लुढ़क चला सर-सर, सर-सर।

यहाँ चला फिर वहाँ चला
मौज उड़ाई, जहाँ चला ।