निज़ामुद्दीन-4 / देवी प्रसाद मिश्र

हेलो... ठीक है... हम दोनों निज़ामुद्दीन में ग़ालिब की क़ब्र के पास की चाय की दुकान में चले चलेंगे। वहाँ आसपास शोर तो बहुत होता है और बच्चे ऐसा कोहराम मचा रहे होते हैं कि पूछिए मत — लगता है कि मरदूदों को ख़ुश होने से कोई नहीं रोक सकता। भूख तक नहीं। लेकिन अब और कहाँ मिला भी जाय — शहर में एक ढंग की जगह मिलेगी भी तो उससे पचास गज की दूरी पर एक औरत के उलटी करने की गों-गों सुनाई न पड़ जाएगी, इसकी क्या गारंटी।
 
अब आप से क्या छिपाना
मार्क्सवाद से मैं भी निजात पा लेना चाहता हूँ

बस, आप मिलिए और

शिनाख़्त के लिए बता दूँ कि चाय की दुकान में
मैं लाल रंग की पतंग लेकर मिलूँगा जो
इस रंग से मेरा आख़िरी नाता होगा

उसके बाद मैं उसे उड़ा दूँगा । हमेशा के लिए ।
जाहिर है आसमान में ।

लेकिन आपको मैं पहले ही आगाह किए देता हूँ
कि आपको मुझे ढंग से समझाना होगा
केवल एक वक़्त का दाल-चावल खाकर
मैं आपका होने से रहा

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