अब इसका क्या किया जाए कि शायरों की क़ब्रों पर बकरियाँ काफ़ी घूमा करती हैं फिर वो नज़ीर की क़ब्र हो या एक वक़्त में ग़ालिब की ही। असद जैदी ने अपने शरारती अंदाज में जब यह ठहाके लगाते हुए कहा तो मैंने उनसे ये नहीं कहा कि इस बात को हिन्दी कविता के तौर पर कह देने में तो कोई हर्ज़ नहीं। यों भी मैं यह थोड़े ही कह रहा था कि हिन्दी कविता में बाज़ाबिता नज़ीर अकबराबादी को शामिल किया जाय गोकि इस माँग-पत्र की कोई न कोई कार्बन-कॉपी मेरे पास होती ज़रूर है और वह मेरे मरने के बाद मेरी किसी जेब में मिलेगी फिर आप मुझे गाड़ें, जलाएँ या फिर चीलों के हवाले कर दें। मतलब कि आप गाड़ेंगे तो वहाँ बकरियाँ आया करेंगीं, जलाएँगे तो मुझे गंगा के नाले के हवाले होना पड़ेगा। लेकिन आप तक यह बात किस अफ़वाह की तरह पहुँची कि चील माने हिन्दी के कई आलोचक जो सबसे ज़्यादा सत्ता के शव पर मँडराते हैं। लब्बो-लुआब ये कि मैं चीलों से तो बच जाऊँगा।
मैं कम-हैसियत ।