निशा के बाद उषा है, किन्तु देख बुझता रवि का आलोक अकारण हो कर जैसे मौन ज्योति को देते विदा सशोक तुम्हारी मीलित आँखें देख किसी स्वप्निल निद्रा में लीन हृदय जाने क्यों सहसा हुआ आद्र्र, कम्पित-सा, कातर, दीन! गुरदासपुर (रेल में), 1 सितम्बर, 1935