नोन-तेल-लकड़ी की फ़िक़्र में लगे घुन-से,
मकड़ी के जाले-से, कोल्हू के बैल-से ।
मकाँ नहीं रहने को, फिर भी ये धुन से
गन्दे, अन्धियारे और बदबू-भरे, दड़बों में
जनते हैं बच्चे ।
शहर की तमाम नालियों की जो सड़ान्ध है
न घुस पाती इन के दिमाग़ में, नथुनों में ।
पुर्ज़ों-से बेजान,
बीस-बीस पच्चीस
माहवार रुपयों पर जीते हैं ।
इनके हैं कोई नहीं विश्वास अथवा मत ।
जैसा कहा सबने, त्यों,
इनने भी गर्दन हिलाई,
पुनः कर्मरत ।
इनके यों जीने में कौन-सा बचा मतलब ?
आशा कौन-सी है इन्हें,
फिर भी ये जीते हैं,
उच्च-मध्यवर्ग की नक़ल करते
बोल-चाल, रहन-सहन, कपड़ों में रस्मों में ।
लहू नहीं, गोमूत्र बहता इन जिस्मों में,
इसी से सदा डरते क्रान्ति में नवीनता से घबराते ।
पीटते लकीर ।
औ' मुहल्ले में इनके जो आता है
सदा देने बुड्ढा फ़क़ीर,
वह भी तो जानता है।
इनकी इस दासत्व-जर्जरित मनसा की नस-नस, सो
कहता है—‘काम में तरक़्क़ी हो,
ओहदा बढ़े,
कमाने वालों की ख़ैर रहे,
औलाद बढ़ती रहे,
मिल जाए पाव-भर आटा',
जबकि इनका ही
इस विराट आर्थिक विपन्नता की
चक्की में पिस-पिस कर
बन रहा महीन ख़ुद आटा है ।