जगह-जगह गड्डे भरे हैं खालीपन के
रात, सुबह की रोशनी में बिला जाती है
याद करने से नहीं भरता अशक्त मन
पटरियों का ठंडा लोहा छूता है
स्मृतियों की निखालिस परछाई
यादें सिहरती हैं
पड़े-पड़े कथिर की तरह जमते हैं हमारे नन्हें आशय
धूल हमारे समय का पछतावा है
सभी के चेहरे थके हुए हैं लंबी यात्रा से
एक गोल घेरा है चारों ओर
कोई बाहर नहीं
मासूम पत्तियां बाहर गिरती है तो
खींचता है पृथ्वी का तनाव
सिर्फ आदर्श जिंदगी का फलसफा नहीं हो सकता
निरर्थकता भी अशाब्दिक पाठ है