निरालोक यह मेरा घर रहने दो!
सीमित स्नेह, विकम्पित बाती-
इन दीपों में नहीं समाएगी मेरी यह जीवन-थाती;
पंच-प्राण की अनझिप लौ से ही वे चरण मुझे गहने दो-
निरालोक यह मेरा घर रहने दो!
घर है उस की आँचल-छाया,
किस माया में मैं ने अपना यह अर्पित मानस भरमाया?
अहंकार की इस विभीषिका को तमसा ही मैं ढहने दो!
निरालोक यह मेरा घर रहने दो!
शब्द उन्ही के जिन को सुख है,
अर्थ-लाभ का मोह उन्हें जिन को कुछ दुख है;
शब्द-अर्थ से परे, मूक, मेरी जीवन-वाणी बहने दो-
निरालोक यह मेरा घर रहने दो!
स्वर अवरुद्ध, कंठ है कुंठित,
पैरों की गति रुद्ध, हाथ भी बद्ध, शीश-भू-लुण्ठित,
उस की ओर चेतना-सरिणी को ही बहने दो, बहने दो!
निरालोक यह मेरा घर रहने दो!
दिल्ली, 31 अक्टूबर, 1940