गांव मंे जब दलितों के मकान बनते हैं
कच्चे की जगह पक्के ईंटों के बनते हैं
गहरी नींव की ईंट दीवार उगती हैं
तब सवर्ण सरों में लाखों जूं पड़ते हैं
उनकी पगड़ी कभी तन जाती है
उलझनों के हाथों बिखर जाती है
झुकी मंूछे ताव से खिंची होती हैं
धोती भी ढीली व सीधी होती है
ठकुराइन ठाकुर से कही, नामर्द दिखते हो
अछूत नीची जाति से, गये बीते लगते हो
उनके घास के छप्पर, अब मकान बन रहे हैं
तुम्हारे मकान खड़े हैं, अब छत गिर रहें हैं
ठाकुर सांप से मूंछों पे फनफनाते हैं
अपने ठकुराईसी शान में सीना फुलाते हैं
चूहड़ों से मेरी इज्जत क्या क रहेगी?
जिन्हें घुड़का बेगारी पे दिन-रात खटाते हैं
वे तो हमारे पैर के नीचे रहते हैं
बेगारी मजदूरी टुकड़े पे चलते हैं
बीबी होकर उनकी तारीफ करती हो
जिनकी बहू बेटी मेरी चिलम में जलती हैं
सूदख़ोरों को कर्ज देने का मौका मिलता है
जो दिन दूना और रात चौगुना बढ़ता है
तुम घर बनाओ पैसे का ध्यान मत देना
आखिर हमारा तुम से खानदानी नाता है
इसी कर्ज से गिरती हैं उनकी दीवारें
गलती हैं हड्डियां भी भूख के मारे
सूद तले मकान सूदख़ोरों का होता है
सिर्फ पसीने की अनयक बहती हैं धारें
कर्ज के नीचे बेगार पिसते हैं
गाली डंडे की चोट से मरते हैं
माँ बहनें कर्ज तले काम करती हैं
सूदख़ोरों की हवस का शिकार बनती हैं
घर व घर की मर्यादा दोनों मिटती है
नये मकान से पहले बुनियाद हिलती है
क्या आबाद होगी बस्ती, जब है नींव ऐसी?
रहने के लिए घर है न लाज कपड़े की