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निर्वाचन / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

फागुन या कि चैत में-बदलेंगी अपना रुख़ हवाएँ
आपसी संवाद में हो उठेंगी मुग्ध, पास की दो सीढ़ियाँ
‘अब तो बनाना है ज़रूरी घोसला’ (मुर्दाघर-स्ािानाभाव के चलते?)

नख पर है नक्षत्रलोक, उँगलियों में फँसी आधी सुलगी बीड़ी
है मांस का अकाल, वर्ना हावभाव से कोई ऋषि जान पड़ता वह।
विकृत मस्तिष्क चाँद की ओर तनी उँगली में विदेही सपने।

शाम का नाजुक़-सा सूरज रोज़ झील में डूब जाएगा।
बदनसीब बार्सिलोना के रेस्तरां में यह कुछ बुरा नहीं लगेगा।
साम्य है बड़ी उम्दा चीज़। वैसे अनुचित है राजद्रोह।

‘हे बदज़ायका ज़िन्दगी’, वगैरह कहकर इधर-उधर तक लेना।
ऐसा है दोस्त कि अब की जाए आत्मा की अनदेखी। (अहो!
फ़िलहाल माघ की मुठभेड़ में दक्खिन की सेना में मची है खलबली।)

क्या बसन्त अब भी सदल-बल अपना त्यागपत्र नहीं भेजेगा?