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निर्वासित / नरेन्द्र शर्मा

दूर हूँ, परदेश में हूँ; गूँज मत, ओ देश के स्वर!
उमड़ मैदानी नदी-सी बह चलेगी पीर,
बहुत चौड़ा पाट, वह धारा बड़ी गंभीर,
फट गया है हृदय, है दो टूक ज्यों दो तीर--
कैसे समाएगा भला, सब बाँध मेरे हुए जर्जर!
गूँज मत, ओ देश के स्वर!
व्यर्थ आयेगी मुझे तब याद पहली बात,
बहुत गहरा पहुँचता स्वर का मृदुल आघात!
बह चलेंगे नसों में विक्षिप्त तड़ित-प्रपात,
सुनसान मेरा देश यह मरुदेश है, है दूर सागर!
गूँज मत, ओ देश के स्वर!
जल चुका है स्नेह मेरा, बुझ गया है दीप,
गल गया विश्वास का मोती, पड़ी है सीप!
बहुत काले साँप मेरा पथ गए हैं लीप!
हूँ राख का सा ढेर मैं, है भस्म सब सुकुमार अंतर!
गूँज मत, ओ देश के स्वर!