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निवेदन / आभा पूर्वे

मेरी भावना के आवेग को
जब तुमने रोका था
सर्पदंश की तरह था
जिसे मैं पी गई थी
पर वह
कण्ठ पर न रुक कर
मेरे सम्पूर्ण वजूद में
फैल गया था
इसीसे शिव की तरह
नीलकण्ठ न होकर
साक्षात कालकूट हो गई हूँ
इस नये कालकूट को
हृदय पर नहीं रखोगे, प्रिये ?