सरयू तट वारि विमल धारा,
स्नान-ध्यान मंजन न्यारा।
मुनि कें प्रणाम के अर्पण करि
मंदिर-मंदिर प्रभु-दर्शन करि।
सब कुशल क्षेम मग में पुछतें,
श्रीराम ध्यान हिय में गुनतें;
विह्वल पग आगू भागै छै,
तन शिथिल तनिक नै लागै छै।
गुह-राज कहै छै- ”हौ देखोॅ
पर्वत के धुँधवैलोॅ रेखोॅ।
छै वहाँ नदी के शुचि धारा,
जेकरा तट राम-कुटी न्यारा।“
गंुजलोॅ घाटी में हर्षनाद
”सिय-रामचन्द्र जय लखन-राज!“
-”वट-वृक्ष सामने झूमै छै,
मलयानिल पर्वत चूमै छै।
झुरमुट मंे पंछी बालै छै,
मस्ती में पादप डोलै छै।“
-”तुलसी अंगना लहरावै छै,
नभ गीत हर्ष के गावै छै।
श्रीरामचरण-रज के चंदन
पावी कें पावन छै कण-कण।“
-”माता निर्मित वेदी सुन्दर
आसीन जहाँ द्विज औ मुनिवर।
नित वेद-पुराण सुनावै छथ,
हरि-कथा प्रेम सें गावै छथ।“
”तट पर ठहरोॅ हे बंधु-वृन्द!
मिलि के अयभौं हम कृपा-सिंधु।“
-कहि भरत निषाद सहित बढ़लोॅ
आश्रम के पथ सानुज चढ़लोॅ।
श्रीराम जानकी शोक-तप्त
कारण निशि के सपना विरक्त।
लक्ष्मण के हाथें धनुष-वाण,
दूरागत पर टिकलोॅ सकल ध्यान।
”सिय राम चरण के जय बोलोॅ!
श्री लखन लाल के जय बोलोॅ!“
-आवाज सुपरिचित जब लगलोॅ
तब राम दौड़ि छाती लगलोॅ।
रोमावलि पुलकित, पुलक अंग
गंगा-यमुना ज्यों एक संग।
अवरूद्ध कंठ, वाणी गद्-गद्;
प्रेमाश्रुपूर्ण आँखी डब-डब
छै द्रवित वहाँ दू शिला-खंड
धरती पर बहलोॅ धारा अखंड।
पत्ता-पत्ता सब थर-थर-थर
वृक्षावलि भीतर अनुराग-लहर।
कुछ देर वहाँ सुन-सान प्रहर;
गुमसुम भाषा में बात सगर।
भरतोॅ कें राम बतावै छै
या आपनोॅ हृदय दिखावै छै।
-”तों निर्दोष भाई हमरोॅ
भोगो नियति, तों नै हमरोॅ।
कल बात होतै विश्राम करोॅ,
पुरवासि छौं कहाँ? यहाँ आराम करोॅ“
शत्रुघ्न सहित सब उर मिललोॅ
प्रेमाश्रु-धार में भू बहलोॅ।
सब आर्य-श्रेष्ठ कें करि प्रणाम,
सादर बैठलकोॅ लखन-राम।
राजा दशरथ के दुखद कथा
मुनिश्रेष्ठ बतैलकोॅ सकल व्यथा।
संतप्त प्रजा, अभिशप्त नगर।
शोकाकुल महल, विदग्ध डगर।
सुनि कें सब गाथा राम मौन,
लक्ष्मण-सीता हत व्यथा-द्रोण (बिच्छू)।
अगनित वृक्षावलि लता-गुल्म-
वन में लगलोॅ छै।
शोभा अनुपम, मन मुग्ध,
शिला सुन्दर पड़लोॅ छै।
चारों भाई, सीता समेत
जन-श्रेष्ठ शिला पर समासीन।
सम्मुख वनवासी छाया में
गृहपति समेत, मुख छै मलीन।
सबके मन में बस एक प्रश्न छिडलोॅ छै।
बस एक्के शंका सें सब नर-नारी घिरलोॅ छै।
श्रीरामचन्द्र के अवधवास;
अथवा वन में हुनकोॅ निवास?
तब भरत राम-तल पग अवनत,
कर जोरि निवेदित करै विनत
-”हे भ्रातृ-श्रेष्ठ! प्रार्थना मात्र एतरा छै,
सब सखा-बंधु के साथ, अवध चलना छै।
-”आदेश पिता के शिरोधार्य,
लेकिन अक्षम हम भ्रातृ-आर्य!
-”तों राजतिलक स्वीकार करोॅ
आग्रह भाई, के गुरूवर के, नै इंकार करोॅ।“
गंभीर राम, मुख-मुद्रा पर गंभीर भाव
अपलक आँखी में आँसू, नै कोय उपाय।
-”हे भरत श्रेष्ठ! प्रस्ताव तोरोॅ हम मानै छी
स्वागत के योग्य बात तोहरोॅ हम जानै छी।
लेकिन गंभीर विचार यहाँ भरलोॅ छै,
राजतंत्र में प्रजातंत्र के बीज यहाँ पड़लोॅ छै।
-”मान्होॅ नर सें नारी भारी
लेकिन ओकरोॅ छै लाचारी।
युग-युग के बन्धन के कारण
मति पर पड़लोॅ पत्थर भारी
-”माता कैकेई जननी नै, माता के हृदय धरै छै।
सच में हौ नारी, नारी छै, जे सुत हित जियै-करै छै।
-”निज जननी के ई महासूझ,
जे विरले के ही पड़े बूझ;
टूटे तब फूटे नव अंकुर,
कॉपे, तब उभरे गायक-सुर।
-”तों श्रेष्ठ सूर्यकुल-मणि, भरण-कर्त्ता छ।
जन-मन के जाननहार, दुक्ख हर्त्ता छ।
-”विश्वास, त्याग श्रद्धा भरलेॉ मानवता के अवतार।
सही अर्थ में धरती के छै तोहरा पर अधिकार।
-”हर आँसू के बूँद में तोरोॅ प्रतिरूप दिखै छौं
हर प्रकार सें तोहरोॅ शिर पर धारण ताज लिखै छौं।
-”राजधर्म के पालन करना नै कोय साधारण खेल,
स्वार्थरहित परमार्थ-कार्यरत रहना दुष्कर मेल।
-”माता के प्रस्ताव में तोहरोॅ नै, पुरवासी के लाभ
पिताश्री के प्रण-पालन में विश्व-शिवं के भाव।
-”दुर्बलता भरलोॅ मनुष्य के छै दुर्बल इतिहास
सत्ता-लोलुप राज धर्म में राष्ट्र-धर्म के हा्रस।
-”तोरोॅ दिल झक-झक दर्पण छै, भक-भक तप के आग;
रग-रग में छौं प्राण स्नेह के, भरलोॅ मधुमय राग।
-”जन के सच्चा नेता ऊ,
जे तप के आगिन में तपने छै;
भीतर के शीतल हिम-समुद्र में,
अपनोॅ जीवन केॅ गढ़ने छै।
-”न्याय-नीति-निष्णात नयन में,
निकलुष आभा अनगिन छै।
दीन-हीन के रक्षा में भुज-
शौर्य समर्पित सद्दोखिन छै।
-”तोरोॅ मन विमल आइना जेकां
चम-चम-चम चमकै छौं;
वाणी मन के अनुकूल कर्म
तोरोॅ हरदम दमकै छौं।
-”धरती के मन तों नै छोडोॅ,
कर्त्तव्य-विमुख रण नै छोडोॅ।
विस्तृत मानस के कर्म-कुंज!
हर तरह योग्य तों प्रभा-पुंज।
-”गुरूवर के शिर पर आशीष प्रबल।
रविकुल सपूत तो आत्म-अटल।
-”बनि के प्रहरी तों धरोॅ राज;
तन-मन-धन सें है गहोॅ ताज।
छेड़ो तों उर के मुक्त तान।
धरती सें जुड़लोॅ मधुर गान।
-”हमरोॅ चिंता के करोॅ दूर;
परिवार प्रजा कें करोॅ पूर।“
प्रिय भरत मौन मन में गुनै;
श्रीराम-वचन दिल सें सुनै।
आनंदमग्न कुल सभा-प्राण;
हर तार-तार में मुखर गान।
राज-धर्म सर्वस्व-सार
वैषम्य रहित, परितुष्ट प्यार।
सम्यक् पालन, सम्यक् विकास
सम्पूर्ण राष्ट्र के एक भास।
मन में छिपलोॅ जे अभिलाषा,
मुखरित श्रीराम सदय भाषा।
पुरूषार्थ पितृ आज्ञा-पालन,
तों राज-ग्रहण, हम वन चालन।
दोनों भाई के धर्म-कार्य
हे भरत, भ्रातृवर! श्रेष्ठ आर्य!
संकुचित भरत तब बोलै छै,
अपनोॅ निष्ठा कें खोलै छै-
-”आदेश पुनीत छै शिरोधार्य,
पर आग्रह तों हमरोॅ सुनोॅ आय।
-”चाही तोहरोॅ पद-कमल-पीठ
शम-दम के युग शीर्ष दीठ।
सिंहसन पर हम्मे राखी,
परमात्म रूप मानी साखी।
-”जन के शुभ चिंतन में तत्पर,
धरती पर स्वर्ग-सुभग सुन्दर;
प्रतिनिधि मात्र बनि, हम लानी,
अपना कें जन-रक्षक मानी।“
गौरव भाई के वाणी पर,
निस्पृह त्यागी पर, ज्ञानी पर।
श्रीराम भरत कें उर में भर,
देलकोॅ आपनॅ आशीष प्रवर।
देवता फूल बरसावै छै;
सद्गुण सब संत बखानै छै।
सखा समेत भरत चललोॅ,
सूरज में तेज नया भरलोॅ।
मग में मुनि-गुरू-द्विज रामकथा,
व्याकुल विदेह गुण शील-व्यथा।
गोमती स्नान, फिर अवधपुरी
परिजन-पुरजन पहुँचलोॅ घुरी।