सुप्त उर के तार फिर से
प्राण! आकर झनझना दो!
नभ-अवनि में शुभ्र फैली चांदनी,
मूक है खोयी हुई-सी यामिनी;
और कितनी तुम मनोहर कामिनी!
आज तो बन्दी बनाकर
क्षणिक उन्मादी बनादो!
मद भरे अरुणाभ हैं सुन्दर अधर,
नैन हिरनी से कहीं निश्छल सरल,
देह ‘विद्युत, काँच, जल-सी’ श्वेत है,
डालियों-सी बाहु मांसल तव नवल,
आज जीवन से भरा नव
गीत मीठा गुनगुना दो!
स्वर्ग से सुन्दर कहीं संसार है,
हर दिशा से हो रही झंकार है,
विश्व को यह प्रेम री स्वीकार है,
चिर-प्रतीक्षित-मधु-मिलन
त्योहार संगिनि! अब मना लो!